Thinking, Fast and Slow by Daniel Kahneman Book Summary in Hindi

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क्या आपने कभी सोचा है कि आपके दिमाग में एक ही समय पर दो अलग-अलग तरीके से सोचने वाले systems काम कर रहे होते हैं? एक तेज़ी से काम करता है, बिना ज्यादा सोचे, और दूसरा धीरे-धीरे, हर चीज़ को ध्यान से समझने के बाद। नमस्कार दोस्तो ‘Book Brevity’ में आपका फिर से स्वागत है। आज हम बात करेंगे एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब "Thinking, Fast and Slow" के बारे में। यह किताब हमारे दिमाग की इन्हीं अनोखी प्रक्रियाओं पर रोशनी डालती है। Nobel prize winner Daniel Kahneman ने इसमें समझाया है कि हम कैसे फैसले लेते हैं, हमारी सोच हमें कैसे धोखा दे सकती है, और हम कैसे अपने निर्णयों को बेहतर बना सकते हैं। तो चलिए, आज हम इस किताब की गहराई में उतरते हैं और समझते हैं कि हमारी सोच के ये दो systems हमारी ज़िंदगी को कैसे प्रभावित करते हैं। इससे पहले आप इस amazing book में खो जाए, अगर आपने अभी तक हमारे channel को Subscribe नहीं किया है तो तुरंत Subscribe कर दे और video को Like भी कर दे। तो चलिए शुरू करते हैं।

Thinking, Fast and Slow by Daniel Kahneman Book Summary in Hindi
Thinking, Fast and Slow by Daniel Kahneman Book Summary in Hindi

Part 01: Two Systems

"Thinking, Fast and Slow" की सबसे बड़ी और पहली बात जो हमें समझनी चाहिए, वो है हमारे दिमाग के दो systems – System 1 और System 2


System 1: तेज़ और automatic सोचने वाला system

System 1 हमारा वो हिस्सा है जो तुरंत और बिना ज्यादा सोचे काम करता है। ये बहुत जल्दी निर्णय लेता है और बिना मेहनत के किसी भी स्थिति में प्रतिक्रिया देता है। जब हम रोज़मर्रा के काम कर रहे होते हैं जैसे किसी से बात करना, कार चलाना, या चेहरा देखकर किसी की भावना पहचानना – ये सब system 1 का काम होता है। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि ये system हमेशा सही नहीं होता। क्योंकि ये बिना सोचे काम करता है, इसलिए ये कई बार गलतियाँ भी कर बैठता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई इंसान अचानक तेज़ आवाज सुनता है, तो उसका दिमाग बिना सोचे उसे खतरनाक मानकर डर महसूस करने लगता है, जबकि कई बार वो आवाज़ खतरनाक नहीं होती।


System 2: धीरे-धीरे सोचने वाला और मेहनत करने वाला system

दूसरी तरफ system 2 बहुत सोच-समझकर काम करता है। जब हम किसी कठिन गणित के सवाल का हल निकाल रहे होते हैं, या किसी जटिल समस्या पर ध्यान दे रहे होते हैं, तो ये system सक्रिय होता है। ये ज्यादा मेहनत माँगता है, इसलिए हम इसे हमेशा नहीं इस्तेमाल करते। लेकिन system 2 भी आलसी हो सकता है। अक्सर हम आसान फैसले लेने के लिए system 1 का सहारा लेते हैं और मुश्किल कामों को टाल देते हैं, क्योंकि system 2 को सक्रिय करना थकाने वाला होता है।


Systems का संघर्ष:

अब सबसे बड़ी बात ये है कि ये दोनों systems एक साथ कैसे काम करते हैं। ज़्यादातर मामलों में, system 1 जल्दी से निर्णय ले लेता है और system 2 तब आता है जब हमें कोई गंभीर और ध्यान देने वाला काम करना होता है। लेकिन अगर हम system 2 का इस्तेमाल ना करें, तो गलतियाँ होना तय है। इसलिए, हमें ये समझने की ज़रूरत है कि कब हमें तेज़ फैसले लेने चाहिए और कब सोच-समझकर निर्णय लेना चाहिए।



Part 02: Heuristics & Biases

अब हम बात करते हैं Heuristics और Biases की। ये दोनों चीज़ें हमारी सोच को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती हैं, खासकर जब हम जल्दी से फैसले ले रहे होते हैं।


Heuristics: दिमागी shortcuts

Heuristics वो मानसिक shortcuts हैं जो हमारा दिमाग इस्तेमाल करता है ताकि वो तेज़ी से और बिना ज्यादा मेहनत के फैसले ले सके। उदाहरण के लिए, जब हमें किसी चीज़ के बारे में जल्दी से अंदाज़ा लगाना होता है, तो हम heuristics का सहारा लेते हैं।

Example: अगर आप किसी शहर में घूमने जाते हैं और देखते हैं कि कुछ लोग एक restaurant में line में लगे हुए हैं, तो आप ये सोच सकते हैं कि वो restaurant अच्छा होगा। ये एक तरह का heuristic है – बिना ज्यादा सोचे फैसला लेना।


Biases: सोच में धारणाएँ

Heuristics के कारण कई बार हमारी सोच में biases आ जाते हैं – यानी कि हमारी सोच प्रभावित हो जाती है और हम सच्चाई को सही से नहीं देख पाते।

1. Availability Heuristic: जो जानकारी हमारे दिमाग में आसानी से आ जाती है, हम उस पर ज्यादा भरोसा करते हैं। मान लीजिए आपने TV पर किसी आपदा की खबर देखी, तो आपको लगेगा कि आपदा का खतरा ज्यादा है, जबकि वो सिर्फ आपके दिमाग में ताजा है।

2. Anchoring Bias: जब हम किसी एक जानकारी पर अटक जाते हैं और बाकी की जानकारी को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। जैसे अगर कोई product की कीमत पहले 1000 रुपये बताई जाती है और बाद में उसे 700 रुपये कर दिया जाता है, तो हमें वो सस्ता लगने लगता है, जबकि असल कीमत ज्यादा हो सकती है।


क्यों होते हैं biases खतरनाक?

Kahneman बताते हैं कि heuristics और biases की वजह से हम सही फैसले लेने में असमर्थ हो जाते हैं। हम अपनी सोच पर बिना सोचे भरोसा कर लेते हैं, और यही हमें नुकसान पहुंचा सकता है। इन biases से बचने के लिए हमें अपनी सोच के तरीके को बेहतर तरीके से समझना और उसे चुनौती देना जरूरी है।

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Part 03: Overconfidence

Overconfidence हमारी सोच की एक और बड़ी कमजोरी है। Kahneman ने अपनी research में दिखाया कि हम अक्सर खुद को ज्यादा स्मार्ट समझने लगते हैं और अपने फैसलों पर बिना सवाल उठाए यकीन कर लेते हैं।


Overconfidence क्या है?

Overconfidence तब होता है जब हमें लगता है कि हमें सबकुछ पता है, जबकि असल में हमारी जानकारी अधूरी होती है। हम अपने फैसलों और अपनी समझ पर इतना यकीन कर लेते हैं कि हम संभावित जोखिमों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

Example: मान लीजिए आप share market में निवेश कर रहे हैं। अगर आपको अपने निवेश के बारे में पूरा यकीन है कि यह बढ़ेगा, तो आप बिना सोचे-समझे ज्यादा पैसा लगा सकते हैं। लेकिन ये overconfidence आपको नुकसान में डाल सकता है अगर आप सही जोखिमों का अंदाजा नहीं लगा पाते।


Overconfidence से बचने के तरीके

1. जानकारी इकट्ठा करें: फैसले लेने से पहले जितनी हो सके, जानकारी इकट्ठा करें। खुद से सवाल पूछें – क्या मैं सही दिशा में सोच रहा हूँ?

2. सलाह लें: सिर्फ अपने ऊपर भरोसा न करें, दूसरों की राय भी जानें।

3. निरंतर सीखते रहें: हमेशा ये मानें कि हर चीज़ के बारे में आपको सबकुछ नहीं पता। सीखते रहना और खुद को update रखना बेहद ज़रूरी है।



Part 04: Choices

किताब का चौथा हिस्सा हमारे निर्णय लेने के तरीके के बारे में है। Kahneman की research में ये पाया गया कि हम अपने फैसले किस तरह से लेते हैं, खासकर तब जब हमें किसी जोखिम का सामना करना पड़ता है।


Prospect theory:

Kahneman की Prospect theory बताती है कि लोग फायदे से ज्यादा नुकसान से डरते हैं। जब हमें कोई फैसला लेना होता है, तो हम ज्यादा ध्यान इस बात पर देते हैं कि हमें कितना नुकसान हो सकता है, बजाय इसके कि हमें क्या फायदा हो सकता है।

Example: अगर किसी को 1000 रुपये जीतने का मौका दिया जाए, लेकिन साथ में ये कहा जाए कि 500 रुपये खोने का भी risk है, तो ज्यादातर लोग इस जोखिम से बचने की कोशिश करेंगे, भले ही फायदे की संभावना ज्यादा हो।


फैसले लेने का भावनात्मक असर:

हमारे फैसले अक्सर हमारे emotions से प्रभावित होते हैं, न कि logic से। जब हमें डर लगता है, हम फैसले को लेकर ज्यादा सतर्क हो जाते हैं। इसी तरह, खुशी में हम जल्दबाजी कर सकते हैं। इसीलिए Kahneman कहते हैं कि हमें अपने emotions को control में रखना चाहिए ताकि हम सही और logical फैसले ले सकें।



Part 05: Two Selves

Kahneman बताते हैं कि हमारी ज़िंदगी में दो अलग-अलग "selves" होते हैं, जो हमारे अनुभवों और यादों को अलग-अलग तरीके से देखते हैं:


1. Experiencing Self:

ये हमारा वो हिस्सा है जो हर पल को जीता है, जो उस समय में हमारे द्वारा महसूस किए गए हर अनुभव का साक्षी होता है। जब आप किसी यात्रा पर होते हैं, तो आपके खाने का स्वाद, मौसम की ठंडक, या पहाड़ों का नजारा—ये सब आपका Experiencing Self महसूस करता है। ये 'अभी' में जीता है और किसी चीज़ का सीधा अनुभव करता है।


2. Remembering Self:

दूसरी तरफ Remembering Self वो हिस्सा है जो अनुभवों को याद करके उन्हें कहानियों के रूप में बदलता है। ये हमारे जीवन के अनुभवों को संजोता है और भविष्य के लिए निर्णय लेते समय उसका सहारा लेता है। उदाहरण के लिए, अगर आपने कोई बहुत अच्छी यात्रा की थी, तो आपको वो पूरी यात्रा नहीं याद रहेगी, बल्कि कुछ खास पल जैसे कि समुद्र किनारे की शाम, दोस्तों के साथ हंसी-मजाक, या किसी खास moment की याद ही सबसे ज्यादा रहेगी। ये Remembering Self है जो आपके अनुभवों को चुनकर उसे एक कहानी में बदलता है।


Experiencing Self और Remembering Self में संघर्ष:

समस्या तब आती है जब ये दोनों selves आपस में तालमेल नहीं बैठा पाते। हमारे जीवन के फैसले ज़्यादातर हमारे Remembering Self के अनुसार लिए जाते हैं, जबकि Experiencing Self हर पल का असली आनंद ले रहा होता है। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी park में घूमने जा रहे हैं और उस समय आपको बेहद अच्छा महसूस हो रहा है, लेकिन अगर वापसी में parking में आपकी कार को किसी ने टक्कर मार दी, तो आपके Remembering Self को यही आखिरी घटना ज्यादा याद रहेगी और वो आपकी पूरी park की यात्रा की याद को खराब कर देगा।


क्या सीख सकते हैं?

Kahneman हमें ये सिखाते हैं कि हमें समझना चाहिए कि हमारा Remembering Self कई बार हमारे फैसलों पर गलत प्रभाव डाल सकता है। हमें अपने अनुभवों को संपूर्णता में जीना चाहिए, न कि सिर्फ कुछ यादगार पलों पर ध्यान देना चाहिए। इसका मतलब ये है कि हमें हर पल का आनंद लेना सीखना चाहिए, बजाय इसके कि हम सिर्फ खास घटनाओं को याद करें और उनकी वजह से अपनी पूरी यात्रा या अनुभव को आंकें।



Conclusion:

Daniel Kahneman की "Thinking, Fast and Slow" हमें हमारी सोच और फैसले लेने की प्रक्रिया के बारे में गहन जानकारी देती है। ये किताब हमें बताती है कि हमारा दिमाग दो अलग-अलग तरीकों से काम करता है – तेज़ी से और धीरे-धीरे।

हमारा system 1 बहुत जल्दी काम करता है और बिना ज्यादा सोचे निर्णय लेता है, जबकि system 2 सोच-समझकर धीरे-धीरे फैसले लेता है। लेकिन ये दोनों systems हमें सही दिशा में तभी ले जा सकते हैं जब हम इन्हें समझदारी से इस्तेमाल करें।

Heuristics और Biases जैसे मानसिक shortcuts हमारी सोच को प्रभावित करते हैं, जिससे हम कई बार गलत फैसले ले लेते हैं। इसी तरह, overconfidence हमें हमारी अपनी समझ और फैसलों पर अंधा यकीन करने पर मजबूर कर देता है, जो हमें जोखिम में डाल सकता है।

Prospect theory के अनुसार, हम फायदे से ज्यादा नुकसान से डरते हैं, और ये हमारी सोच को दिशा देता है। लेकिन हमें भावनाओं को नियंत्रित रखते हुए logical और सही फैसले लेने चाहिए।

Two Selves की theory हमें ये समझाती है कि हमारा Experiencing Self हर पल का आनंद लेता है, जबकि Remembering Self सिर्फ कुछ खास पलों को याद रखता है और उन्हीं के आधार पर हमारी ज़िंदगी का आकलन करता है। इसलिए हमें हर पल का पूरी तरह से आनंद लेना सीखना चाहिए।

Kahneman की इस किताब का सबसे बड़ा संदेश ये है कि हमारी सोच में कई तरह की कमज़ोरियाँ हैं, जिनके कारण हम अक्सर गलत फैसले लेते हैं। लेकिन अगर हम अपनी सोच की प्रक्रियाओं को अच्छे से समझ लें, तो हम बेहतर निर्णय ले सकते हैं। हमें ये समझना होगा कि कब हमें तेजी से काम करने वाले system 1 का इस्तेमाल करना चाहिए और कब हमें सोचे-समझे system 2 का सहारा लेना चाहिए।

तो अब जब आप अगले बार कोई बड़ा फैसला लेने जा रहे हों, तो रुकें, सोचें और दोनों systems को समझदारी से इस्तेमाल करें। यही Kahneman की किताब का असली सबक है – सही सोच के साथ सही निर्णय लेने की कला को सीखना।

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